परमवीर चक्र विजेता अब्दुल हमीद का इतिहास | Abdul Hamid History in Hindi


Veer Abdul Hamid History in Hindi (परमवीर चक्र विजेता वीर अब्दुल हमीद का इतिहास) : हेलो दोस्तों! आज हम आपसे शेयर करेंगे Param Vir Chakra विजेता Veer Abdul Hamid की History. भारतीय शूरवीरों में वीर अब्दुल हमीद  की शख्सियत काबिले तारीफ है।

वह भारत के एक ऐसे सिपाही थे, जिसको भारत पाकिस्तान युद्ध में मरणोपरांत परमवीर चक्र प्रदान किया गया था। यह सांवला-सलोना नौजवान 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में पाकिस्तान के सैनिकों की ईंट से ईंट बजाने के लिए जाना जाता है।

यह भारत माता का वह सच्चा सपूत बेटा था जिसने भारत माता के लिए अपनी जान निछावर कर दी, और इतिहास में अपना नाम अमर कर गया। तो चलिए दोस्तों आज हम इस लेख के माध्यम से जानेंगे "परमवीर चक्र विजेता veer abdul hamid history (अब्दुल हमीद का इतिहास)" तो चलिए जानने का प्रयास करते हैं वीर अब्दुल हमीद के जीवन के कुछ महत्वपूर्ण अंश।


परमवीर चक्र  विजेता अब्दुल हमीद का इतिहास - Veer Abdul Hamid History in Hindi

Veer Abdul Hamid

पूरा नाम        - अब्दुल हमीद
जन्म             - 1 जुलाई 1933
शहीद            - 10 सितंबर 1965
जन्म स्थान    - धामपुर (गाजीपुर से आजमगढ़ मार्ग पर)

अब्दुल हमीद का बचपन 

अब्दुल हमीद की बचपन से ही इच्छा वीर सिपाही बनने की थी। वह अपनी दादी से कहा करते थे कि- "मैं फौज में भर्ती होऊंगा" दादी जब कहती-- "पिता की सिलाई की मशीन चलाओ" तब वह कहते थे-"हम जाएब फौज में ! तोहरे रोकले ना रुकब हम , समझलू"

दादी को उनकी जिद के आगे झुकना पड़ता और कहना पड़ता-- "अच्छा-अच्छा झाइयां फौज में"। हमीद खुश हो जाते इस तरह अपने पिता मोहम्मद उस्ताद से भी फौज में भर्ती होने की जिद करते थे, और कपड़ा सीने की धंधे से इंकार कर देते।


बड़े होने पर उन्होंने किसी तरह सिलाई का काम सीख तो लिया पर उसमे उनका मन नहीं लगता था। उन्हें पहलवानी विरासत में मिली थी। उनके पिता और मामा दोनों ही पहलवान थे। वह सुबह जल्दी ही अखाड़े पर पहुंच जाते दंड बैठक करते अखाड़े की मिट्टी बदन से मलते और कुश्ती के दाव पेच सीखते, और रात में फौज में भर्ती होने के सपने देखा करते थे। इस तरह धामपुर में उनका बचपन बीता।

 अब्दुल हमीद शुरुआती समय (Abdul Hamid Earlier Life)

अब्दुल हमीद अपने बचपन के सपने को पूरा करने के लिए 12 सितंबर 1954 को फौज में भर्ती हो गए।फौज में भर्ती होने के बाद अब्दुल हमीद काफी चर्चित कैडेट रहे। वह अपने साथियों को भी लकड़ी का खेल सिखाते और खुद निशाना लगाने में तो वे माहिर थे। वह उड़ती चिड़िया को भी आसानी से मार गिराते थे। उनके सभी साथी उनकी फुर्ती और बहादुरी की और सधे हुई निशाने की प्रशंसा किया करते थे।

वीरता दिखाने का पहला अवसर (Veer Abdul Hamid First Opportunity)

संयोग से अब्दुल हमीद को अपना रणकौशल दिखाने का अवसर जल्द ही मिल गया। सन 1962 में हमारे देश पर चीन का हमला हुआ। हमारे जवान का एक जत्था चीनी घेरे में था, उसी फोजी जत्थे मैं हमीद भी थे। उस समय लोगों को यह नहीं मालूम था कि वह सांवला सलोना सा दिखने वाला जवान वीर ही नहीं परमवीर है। यह उनकी पहली परीक्षा थी। वह मौत और शिकस्त के मुकाबले में बैठे हुए थे। उनके साथी एक-एक करके कम होते जा रहे थे।


 उनके शरीर से खून के फव्वारे छूट रहे थे। परंतु उनके मन में कोई कमजोरी नहीं आई वह तनिक भी विचलित नहीं हुए उन्हें ना पिता का, न मां का, न बीवी का, और न बेटे का ध्यान आया। वास्तव में वह तो एक सैनिक थे, असली हिंदुस्तानी सैनिक। उनकी मशीन गन आग उगलती रही। धीरे धीरे उनके गोले समाप्त हो गए। अब हमीद क्या करते वह मशीन गन दुश्मनों के हाथों में कैसे छोड़ देते। उन्होंने मशीनगन तोड़ डाली और फिर बर्फ की पहाड़ियों में रेगकर निकल गए।

कंकरीले पथरीली जमीन पर जंगल और झाड़ियों के बीच भूखे-प्यासे चलते रहे। एक दिन उन्हें एक बस्ती दिखाई दी। थोड़ी देर के लिए उन्हें राहत महसूस हुई किंतु वह बस्ती में जाते ही बेहोश हो गए। इस मोर्चे की बहादुरी ने जवान अब्दुल हमीद को लेसनायक अब्दुल हमीद बना दिया। यह तारीख थी 12 मार्च सन 1962 इसके बाद दो तीन वर्षों में ही हमीद को नायक हवलदार  और कंपनी क्वार्टर मास्टरी भी हासिल हुई।

वीर अब्दुल हमीद का दूसरा अवसर (Second Big Opportunity)

जब 1965 में पाकिस्तान ने देश पर हमला किया तो अब्दुल हमीद का खून खौल उठा। पाकिस्तान यह समझता था कि भारत के मुसलमान पाकिस्तानी आक्रमणकारियों का खुल कर विरोध नहीं करेंगे। परंतु उनका यह समझना एकमात्र कोरा भ्रम था। हिंदू और मुसलमान दोनों ही जान हथेली पर लेकर रणभूमि की ओर उमड पड़े साथ ही यह सिद्ध कर दिया कि देश पहले हैं और धर्म बाद में।

10 सितंबर 1965 में कसूर क्षेत्र में घमासान युद्ध छिड़ गया पाकिस्तान को अपनी मंगनी के पैटन टैंकों पर बहुत नाज था। पाकिस्तानी सैनिक  इन फौलादी टैंकों द्वारा सबकुछ रौंदते हुए भारतीय सीमा में घुस आने की उनकी योजना को अंजाम दे रहे थे। परंतु उनका हौसला भारतीय वीरों के सामने पस्त हो गया। अपने साथियों को आगे बढ़ने के लिए ललकारते हुए अब्दुल हमीद मोर्चे  में "आगे बढ़े" का नारा लगाया।

 अब्दुल हमीद ने देखा दुश्मन सिर से पैर तक लोहे का है। उनकी एंटी टैंक बंदूकों ने आग उगलना शुरू कर दिया। हमीद का निशाना तो अचूक था ही, उन्होंने लोहे का टैंक एक गिराया फिर दूसरा गिरा दिया और तीसरा भी नष्ट कर दिया। अब्दुल हमीद ने 'आगे बढ़ो' जोर से नारा लगाया क्षणभर में तीनो टैंक बर्बाद हो गए। पाकिस्तान हमलावरों को मुंह की खानी पड़ी। उस समय हमीद में ना जाने कौनसी अद्भुत शक्ति भर गई थी। वह अपने प्राण हथेली पर ले कर आक्रमण करते जा रहे  थे।

इसी बीच कोई चीज उनके सीने से टकराई उन्हें दर्द का एहसास नहीं हुआ, पर क्षण भर में ही ऐसा लगा कि हर तरफ अंधेरा ही अंधेरा छाता जा रहा है। उन्होंने फिर "आगे बढ़ो" कहना चाहा मगर होठों से शब्द ना निकले। इसीलिए उन्होंने एक ऐसा शब्द कहा  "अल्लाह" जिसमें होठों को हिलाने की जरूरत नहीं होती। यह शब्द रणभूमि में इतना गुंजा कि रणभूमि की सारी आवाज दब गई। हर तरफ सन्नाटा छा गया, एक अनंत सन्नाटा.....!!!

उन्होंने अपने बेटा और बेटी के लिए सौगात ना भेजी, परंतु उन्होंने गाजीपुर को एक बहुत कीमती सौगात "परमवीर चक्र" के रूप में भेजी जो उन्होंने मरणोपरांत प्रदान किया गया।

More Words Veer Abdul Hamid (अंतिम शब्द)

यह परमवीर चक्र हवलदार अब्दुल हमीद को ही नहीं मिला, यह भारतीय सेना के उस हर जवान को मिला जो देश के लिए लड़ रहा है। यह परमवीर चक्र भारत की एकता और अखंडता को भी मिला है। खुश नसीब है वो मां जिसने शान से मरने वाले और अपने देश के लिए कुर्बान हो जाने वाले अब्दुल हमीद को जन्म दिया। देश की आजादी पर मिटने वाला वीर आज हमारे बीच नहीं है। किंतु अपने त्याग और बलिदान से वह आज भी हमारे दिलों में अमर हैं।

उस अमर शहीद की अपनी पावन स्मृति देश प्रेम और राष्ट्रीय एकता का गौरव संदेश सुना रहा है। हम सभी हिंदुस्तानी एक हैं, चाहे वह किसी भी मजहब के क्यों ना हो। हमीद की कुर्बानी इसकी जीती जागती मिसाल है।

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